मानव कल्याण के लिए भगवान विष्णु का कूर्म (कछुए) का अवतार लेने दिन के स्मरण में आज कुर्म जयंती मनाई जा रही है। समुद्र मंथन के दौरान देवताओं और राक्षसों को मिलाकर मंदराचल पर्वत को मदानी बना दिया गया था । मंदराचल पर्वत को समुद्र की गहराई में डूबता देख भगवान विष्णु, देवताओं और राक्षसों की प्रार्थना के बाद कूर्म के रूप में धरती पर अवतरित हुए थे । विभिन्न पुराणों के अनुसार कुर्म रुप में भगवान बिष्णु ने समुद्र में प्रवेश कर मन्दारचल पर्वत को अपनी पीठ पर रखकर समुद्र मंथन में सहायता की थी ।
समुद्र मंथन की कथा स्वर्ग के राजा इंद्र सें जुडी हुई है । एक दिन देवराज इन्द्र अपने हाथी ऐरावत पर यात्रा कर रहे थे। अचानक उनकी भेंट महर्षि दुर्वासा से हुई। देवराज के स्वागत के लिए ऋषि दुर्वासा ने अपने गले सें एक माला निकाल कर इन्द्र को दी ।
देवराज इंद्र ने उसे पहने बिना ही ऐरावत के गले में डाल दी। माला ऐरावत के गले में लटकी हुई थी । माला टूट कर जमीन पर गिर पड़ी । माला ऐरावत हाथी के पैर के नीचे आ गया। यह देखकर दुर्वासा ऋषि क्रोधित हो गए और कहा कि देवराज इंद्र पर गर्विले होने के कारण देवराज के पद से हट्ने का श्राप दिया । श्राप के कारण राक्षसों ने स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। दैत्यराज बलि स्वर्ग के राजा बने । देवताओं और राक्षसों के बीच हमेशा युद्ध होता रहता था । पर देवता हमेशा हारते रहे ।
एक दिन देवता बहुत दु:खी हुए और ब्रह्माजी के पास जाकर सहयोग करने के लिए प्रार्थना की । यह सुनकर ब्रह्माजी ने सभी को विष्णु के पास जाने की सलाह दी । ब्रह्माजी सहित सभी देवता भगवान विष्णु के निवास वैकुंठ धाम गए । देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना करके सभी कहानी सुनाईं। यह सुनकर भगवान विष्णु ने राक्षसों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने का सल्लाह दिया । देवता और दैत्य को मिलकर मंदराचल पर्वत को मदानी बनाकर क्षीर सागर को दही की तरह मंथने के बाद समुद्र से
अमृत की उत्पत्ति होने की बात बिष्णु ने बताई ।
इस उपाय को जानकर देवता दैत्यराज बली के पास गए । देवताओं ने दैत्यराज बली से मीलकर समुद्र मंथन करने की बात की । समुद्र मंथन सें अमृत प्राप्त होने की बात भी बताइ । दैत्यराज बलि सहित सभी राक्षस देवता के योजना से सहमत हो गए । उन्होनें मिलकर मंदराचल पर्वत को उठा लिया और क्षीरसागर में ले गए । मंदराचल पर्वत समुद्र में डूबने लगा । यह देख दैत्यों ने फिर विष्णु की शरण ली । भगवान विष्णु ने भी एक कछुए का रूप धारण किया और अपनी पीठ पर पर्वत को धारण किया। समुद्र मंथन से सबसे पहले हलाल नाम का जहर निकला । हलाल विष के प्रभाव को देवता सहन नहीं कर सके। भगवान शिव ने सारा हलाल विष पी लिया। जहर खाने के बाद शिव का गला नीला पड़ गया। इसलिए शिव को नीलकंठ कहा जाता है।
समुद्र मंथन से धनकी देवी लक्ष्मी, कामधेनु, रंभा नाम की एक परी, एक ऊंचा घोड़ा, एक कोस्तुभमणि, जो भगवान विष्णु के गले में पहना जाता है, एक पारिजात कल्प वृक्ष, आदि १३ रत्नों के बाद अमृत की उत्पत्ति हुई। यह जानकर मोहनी के रूप में विष्णु ने फिर से राक्षसों को धोखा दिया । राक्षसों ने देवताओं पर आक्रमण किया। देव दानव का भीषण युद्ध छिड़ गया। उस समय अमृत कलश देवराज इंद्रपुत्र जयंत ने रखा । युद्ध पूरे १२ साल तक चला। जयंत ने चार अलग-अलग जगहों पर १२ साल तक अमृत कलश रखा । कुंभ मेला हर १२ साल में उन्हीं जगहों पर लगता है जहां जयंत ने अमृत कलश यानि कुंभ कलश रखा था।
ऐसा माना जाता है कि जहां कुंभ राशि का कलश रखा जाता है वहां पर अमृत गिरता है। अधिकांश राक्षस देव-राक्षस युद्ध में मारे गए । देवता मरे नहीं क्योंकि उन्होंने अमृत खाया था। अंत में देवताओं की जीत हुई। देवताओं ने स्वर्ग को पुनः प्राप्त कर लिया ।।